उत्तराखंड में खानपान की संस्क्रति - II

उत्तराखंड में खानपान की संस्क्रति पर एक और लेख विजय जड़धारी द्वारा

कोदा / मंडुवा: मंडुवा को देश भर में अलग-अलग नामों से जाना जाता है , किन्तु ज्यादा प्रचलित कन्नड़ नाम रागी है | अंग्रेजी में इसे फिंगर मिलेट कहते हैं | गढ़वाल , कुमांऊँ में कोदा नाम ज्यादा प्रचलन में है | कोदा एक अलग मिलेट होता है , कोदा /मंडुवा एक ही है | इसे उपेक्षित मोटे अनाज की श्रेणी में रखा है जबकि यह सबसे बारीक है और दुनिया में जितने अनाज हैं , उनमें पौष्टिकता की दृष्टि से मंडुवा सबसे सिखर पर है | स्त्री , पुरुष , बच्चों एवं बूढों सबके लिए यह बहुत उपयोगी है | बढ़ते बच्चों के लिए तो यह और भी उपयोगी है , क्योंकि इसमें सबसे ज्यादा कैल्शियम पाया जाता है |

पुराने ज़माने में जब उत्तराखंड के निवासी मंडुवा को अपने दैनिक खानपान में जरूरी मानते थे तब उनका शरीर पूर्ण स्वस्थ और इतना बलिष्ठ होता था की कभी दुर्घटनावस ऊँची चोटी या पेड़ से गिरने पर भी उनकी हड्डी नहीं टूटती थी | बीमारियाँ उनके पास नहीं फटकती थी और कभी जंगली जानवर भालू आदि से यदि भिडंत हो गई तो बिना किसी हथियार के ही अपने भुजा बल से उसे मौत के घाट उतार देते थे | इसलिए गढ़वाल को वीर भाड़ों (बलवानों) की भूमि कहा जाता है |

आज भी लोग अपने भोजन में नित्य मंडुवा और झागोरा के पकवानों का इस्तेमाल करते हैं उन्हें शारीरिक कमजोरी नहीं हो सकती और उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) नहीं हो सकता | मधुमेह की यह अचूक औषधि है | मंडुवा खाने वाले हमेशा स्वस्थ रहते हैं और कुपोषण से मुक्त रहते हैं | पोषण में मंडुवा की बराबरी अन्य खाद्यान नहीं कर सकते | खनिज विटामिनो के अलावा मंडुवा , आयरन , रेशा एवं आयोडीन का स्रोत भी है |

झंगोरा: झंगोरा उत्तराखंड की एक प्रमुख फसल है | कुमाऊनी में यह मादिरा एवं हिंदी में सांवा , सुंवा एवं समा आदि कई नामों से जाना जाता है | अंग्रेजी में इसे बार्नयार्ड मिलेट कहा जाता है चावल को भले ही सामाजिक एवं सरकारी मान्यता प्राप्त है किन्तु पोषण के हिसाब से झंगोरा ज्यादा महत्वापूर्ण है | झंगोरा है तो सबसे बारीक किन्तु वैज्ञानिकों एवं योजनाकारों ने इसे मोटे अनाज का नाम दे कर उपेक्षित रखा है | झंगोरा नवरात्रों के व्रत या अन्य धार्मिक उत्सवों में फलाहार के रूप में सांवा के चावल के रूप में खाया जाता है | आर्थिक दृष्टि से यह चावल से पांच - साथ गुना फायदेमंद हैं |

पोषण की यदि बात करें तो वैध , डॉक्टर व पोषण के जानकार एवं अनुभवी किसानों की नज़र में यह उत्कृष्ट भोजन है | इसमें सभी फसलों से सबसे अधिक रेशा पाया जाता है जो शुगर या मधुमेह के रोगियों के लिए उपयुक्त है | पीलिया के रोगियों के लिए यह हल्का खाना है | इसमें प्रोटीन , खनिज एवं लौह तत्त्व चावल से अधिक है | यह बादी नहीं करता इसलिए गठिया रोगियों के लिए भी अच्छा है |

कौणी: कौणी (कंगनी ) एक महत्वपूर्ण पौष्टिक अनाज है | इसे अंग्रेजी में फैक्स टेल मिलेट कहते हैं | कौणी को मुख्यतः भात के रूप में खाया जाता है | इसकी खीर भी बहुत अच्छी बनती है | कौणी की खेती मुख्यतः झंगोरे के साथ मिश्रित रूप से की जाती है | कौणी की फसल व दानों पर कोई रोग नहीं लगता | कौणी को कई दशक तक सुरक्षित रखा जा सकता है , किन्तु चावल बनाकर इसे ज्यादा लम्बे समय तक नहीं रख सकते | कौणी को पहाड़ों में औषधि खाध्य के रूप में सर्दियों में इस्तेमाल किया जाता है | बच्चों को जब खसरा रोग होता है तो उन्हें कौणी का भात खिलाया जाता है | इससे खसरा या 'मीजल्स' तुरंत बाहर आ जाता है |

जहाँ तक पौशिष्टता की बात है , अब वैध , डॉक्टर एवं पोषण के जानकार मधुमेह व पीलिया में कौणी का भात खाने की राय देते हैं | इसमें गेंहू और चावल की अपेक्षा प्रोटीन की अधिक मात्रा होती है | रेशा भी गेंहू चावल से ४० गुना अधिक पाया जाता है | इसमें विभिन्न खनिज विटामिन पाये जाते हैं | पचने में यह बिल्कुल हल्का है | कौणी का भात खीर एवं अन्य व्यंजन झंगोरे की तरह बनाये जाते हैं | आधुनिक तरीके से बिस्कुट , लड्डू इडली एवं मिठाइयां भी बनाई जा सकती है |

उत्तराखंड में खानपान की संस्क्रति

विजय जड़धारी

विजय जड़धारी Wednesday, May 18, 2016 0 comment(s)

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